कहूँ क्या ?
वो दर्द
जो कभी कुम्हलाया नहीं
तेरे गमन के बाद
तब से अब तक मै
यही महसूस करता हूँ कि
शायद वो समय सही था
उन फैसलों के लिए
जिनसे मुझे ऐतराज था
पर शायद तेरा न रूठना बेहतर था
औरों के मुकाबले
शायद तुम थी जीवन संगीत
जो सब सुरों से परे है
और
मै आजन्म बेसुरा
तुम्हारे महत्व को समझ न सका
कहूँ क्या ?
अब रहा नहीं शेष जीवन में
मै शायद अकेला था
उन चंद पलों के सहारे
जो थे
किताबों की अलमारी में सिमटे हुए
जिनके सहारे जीवन आहिस्ता - आहिस्ता
रेंगने की कोशिश कर रहा था
पर शायद किस्मत को ये मंजूर नहीं
सोचता हूँ
कि हाथों में तलवार ही उठा लूं
कम से कम मौत तो गुमनामी कि न मिले
हर दिन जब सूरज अपनी जवानी
पर होता है
तो अधखुली आँखों से सोचता हूँ
कि
क्या यही अंत है
उस सुन्दर जीवन की कल्पना का
जिसे न जाने कितनी बार हमने
मिल कर संजोया था
तुमने तो कहा था प्रेम अनंत है
ये सदियों के लिए होता है
अचानक से ऐसा क्या हुआ ?
क्यों तुम चली गयी मुझे अकेला छोड़कर
इस अनजाने से संसार में
भटकने के लिए
एक मौका तो दिया होता मुझे अपने साथ जीने का
कम से कम आज मै एकान्तवादी
मौत का प्यासा
तो न होता ............................................